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________________ १५८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Tain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing Co opho 1 Opening Closing Co'ophen: १५०६ मंगलाष्टक श्रीमन्नम्रसुरासुरेन्द्रमुकुट इत्य श्रीजिनमगलाष्टकमिद इति मंगलाष्टक सपूर्णम् । • कुर्व तु ते मगलम् ॥१॥ कुर्वं तु मगलम् ॥१०॥ देखे, जै० सि० भ० य० I, ऋ० ७०५ । १५०७. मगलजिन - दर्शन जै जै जिनदेव के देवा, सुरनर सकल करें तुम सेवा । अद्भुत हैं प्रभु महिमा तेरी, वरणी न जाय अलपमति मेरी || निस्तार के तुम मूल स्वामी बडे भागन पाइए । रूपचद चिंता कहा जिन चरण सरणनि आइए ॥ इति च कृत जिनगुण विनती सम्पूर्णम् । १५०८. मुनीश्वर विनती वो दिगम्बर गुरु चरण जग तरण तारण जान, जे भरम भारा रोग को है राजवैद्य महान । जिनके अनुग्रह दिन कवि नहि करे कर्म जजीर, ते साधु मेरे उर वसे मेरी हरो पातक पोर ॥१॥ कर जोड मूधर वीनमें वे मिले कव मुनि राय । इह आस मन की कव फल मेरे सरे सगले काज । समार विषम विदेस मे जे विना कार वीस || ते साधु ० ॥६॥ इति साधु विनती सम्पूर्णम् ।
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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