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________________ १४५ Catalogue ot Sanskrit, Praktit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing . नक्षत्राणा निवासे ग्रहगणपटले तारकाणा विमाने । पाताले पन्नगेन्द्रस्फुटमणिकिरणे ध्वस्तसादाधकारे, श्रीमतत्तीर्य कराणा प्रतिदिवसमह तत्र चैत्यानि वदे ॥१॥ इन्द्र श्री जैन चैत्य स्तवमिदमनिश ... प्रणमता चित्त मानदकारी ॥ इति श्री जिनचैत्यनमस्कार समाप्त । देखे, दि० जि० न० र०, पृ० १३२ ' Colophon १४६३. जिनदेव स्तुति Opening जिनराजदेव कीजिये मुक्त दीन 4 करूना । भविवृ द को अब दीजिये यह शील का शरना ।। टेक ।। सुचिशील के धारा मे जो स्नान करे है । मन कर्म को सो धोय के सिवनार वरे है ॥ टंक ॥ व्रतराज सो वेताल व्याल काल डरे है, उपसर्ग वर्ग घोर कोट कष्ट टरे है । जिनराज ॥१॥ जस सील का कहने में थका महस वदन है ।। इस सील से भव पाय भगाकर मदन है। यह सील ही भविवृ द को कल्यान प्रदन है दस पैड ही इस पैड से निर्वान सदन है ।।१४।। टेक ।। Closing Colophon : सम्पूर्णम् । १४६४. जिनपजर-स्तोत्र Opening . ॐ ह्री श्री अहं अर्हद्भ्यो नमो नम । ॐ ह्री श्री अहं सिद्ध पोयो नमो नम । ॐ ह्री श्री अर्ह आचार्येभ्यो नमो
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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