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________________ १२१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darsana, Acara) Closing : योनित्यम्पठति श्रीमान् रत्नमालामिआ पराम् । सशुद्धभावनोनून शिवकोटित्वमाश्रुयात् ॥६७॥ Colophon इति श्री समन्तभद्र स्वामि शिष्यशिव कोटयाचार्य विरचिता___रत्नमाला समाप्ता ॥ शुभभूयात् । ३३१: राजवात्तिक Opening : प्रणम्यसर्वविज्ञानमहास्पदमुसाश्रेय ॥ मिथों तकल्मपचीर वछये तत्वार्थवत्तिकम् ।।१।। Closing | प्रत्यक्ष तमगवतानहतातैश्च माषितम् ।। गुहयतेस्तीत्यत प्रान्निधद्मपरीक्षया ॥३२ ।। Colophon . इति तत्त्वार्थवात्तिके व्याज्यानालकारे दशमो ध्याय । समाप्त । देखे-जि० र० को, पृ० १५६ । __Catg of Skt & Pkt Ms,P 869 ३३२. रूपचन्द्र शतक Openings Closing : अपनी पद न विचारहु, अहो जगत के राय । भववन ज्ञायकहार हे, शिवपुर सुधि विसराय ॥ रूपचद सद्गुरुनिकी जतु वलिहारी जाइ । आपुनर्व सिवपुर गए, भव्यनु पथ दिखाइ ।। इति श्री पाडे रूपचद शतक समाप्तम् । Colophoni ३३३. सद्वोध चन्द्रोदय Opening : यज्जानन्नपि बुद्धिमानपि गुरु शक्तो न वक्त गिरा, प्रोक्त चेन्न तथापि चेतसि नृणा सम्मातिचाकाशवत् । यत्रस्वानुभवस्थितेपि विरला लक्ष्य लभन्ते चिरात्, तन्मोक्षकनिबन्धन विजयते चिततृमत्यङ्ग तम् ॥१॥
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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