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________________ Gath'ogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhrainsha & Hindi Manuscripts (Dharma, Dartana ācāra ) Opening : Closing : Colophon : Opening Closnig : जिन्दरम्यान विलोपाय दाबू सीरी असदारा " हिन्दी अयं दोनों भाषाओं में निया हुआ है। जिसका अन्य की प्रति में भम्बन्ध नही प्रतीत होता, अत. हामा टिन है। ३२५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार मूत्री ममः श्रीमाना निर्धातरुनिलात्मनेः । मानोकानां कितना वह्निद्यादपर्णायते ॥ ११६ सुप्रयति मुगभूमि. कागिन फामिनीव, नगिच जननी मां घुक्षशीलाभुनक्तु । कुनमिव गुणभूषण कन्यका नपुनीतात्, freelayers प्रेक्षिणो दृष्टिलक्ष्मी || इति श्री नमतभद्रस्वामि विरचितोपासकाध्ययने पचम परिच्छेदः समाप्तः । देखें - दि० मि० ग्र० २०, पृ० ६५ । जि० २० पो०, पृ० ३२६ प्र० जे० सा०, पृ० २०८ | Colophon : ३२६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका रहा इस ग्रन्थ के आदि में स्याद्वाद विद्याके परमेश्वर परम निग्रंथ वीतरागी श्री समन्तभद्रस्वामी जगतके भव्यनि के परमोपकार के अर्थ 1 भा० सू० पृ० १२० । रा० सू० II, पृ० १६८ । रा० सू० III, पृ० ३४ Catg of Sht & Pkt Me., P 685. हरि अनीति कुमरण हरो, करो 1 मोक् निति भूषित करो, शास्त्र जु रत्नकरड || इति श्री स्वामी समन्तभद्र विचित रत्नकरड श्रावकाचार की देशभापामय वचनिका समाप्ता । इस प्रकार मूलग्रन्थ के अर्थ का प्रसाद अपने शुक्ल चतुर्दश्यां शनिवासरे । सपूर्ण लिखा । • हस्त ते लिखा । संवत् १९२६ श्रावण श्लोक अनुष्टुप १६०० हजार ग्रन्थ
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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