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________________ (१८४) श्री जैन नाटकीय रामायण जनक-तुम मुझे यहां पर क्यों ले आये हो ? क्या तुम लोग इसी लिये विद्या साधन करते हो कि दूसरों को कष्ट दो। किसी विषय की शिक्षा प्राप्त करके यदि उसके द्वारा दूसरों को लाभ न पहुंचा सकें तो कष्ट भी नहीं देना चाहिये । चपलवेग---तुम्हें अपने यहां आने का हाल अमी मालूम होजायगा । यहीं से थोड़ी दूर पर एक जिन मंदिर है तुम उसमें , जाकर ठहरो । मैं स्थनूपुर जाता हूं। ( चला जाता है । ) जनक-न मालूम क्या क्या मेरे अशुभ कर्मक उदय पायेंगे। (चला जाता है, पर्दा खुलता है, जिन मंदिर का दृश्य सामने आता है वो वहां पहुंचता है।) प्रार्थना गाना । जनक-जग से अनोखा तुझको, हे देब मैंने देखा। ये शांत रूप तेरा हां, ये शांत रूप तेरा, जिनराज मैंने देखा। तू कर्म का विनाशी, मुक्तीका है विलासी । सब दोषसे रहित तू हांसब दोष से रहिततू। · जिनराज मैंने देखा ॥ ( दूसरी ओर देखकर ) हैं। ये किसकी सेना पा रही है ?
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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