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________________ द्वितीय माग | ( १४९ ) अपराध नहीं किया जो उसे सत्ताया जाय ! वरुण - सचमुच रावण । तुम महा उदार मनुष्य हो । तुम से जो वैर करे यह मूर्ख है । तुम वीरता नीति क्षमा के अवतार हो । मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं। और प्रतिज्ञा करता हूं कि अत्र कभी तुमसे युद्ध न करूंगा । रावण - (सिपाही से । इनके बन्धन खोलदो । (बन्धन खुलने पर वरुण रावण के पैर छूना चाहता है किन्तु रावण नहीं छूने देता । अपने कलेजे से लगाता है ) तुम मेरे छोटे भाई के समान हो । तुम्हें मैं हृदय से लगाता हूं । हमारी तुम्हारी शत्रुता युद्ध में थी अब नहीं रही । अब भाई २ का व्यवहार है । हनूमान तुम इनके पुत्र को बन्धन से मुक्त करो । हनुमान - जैसी श्राज्ञा (सिपाही से ) इनके सब पुत्रों को जाकर छोड़ दो । वरुण - रावण मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूं । मैं अपनी g पुत्री की सगाई मापसे करता हूं । मुझे इनुमान का बल देख कर आश्चर्य होता है, ये बहुत ही महापुरुष हैं, रावण - पुत्र हनुमान, तुम हमें बताओ तुमने कितनी विद्यायें साधी हैं ।
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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