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________________ जबूस्वामी चरित्र - - - - मात्मीक सुखको चाहता है उसे इसी जैन धर्मका सेवन करना चाहिये । कहा है सारोऽस्त्यत्र दयाधर्मों जैनो मुक्तिसुखपदः । स चेन्द्रियकषायाणां दुर्मदे दमनक्षमः ॥ ९५ ॥ सागरचन्दका मुनि होना। इस तरह विद्वान सागरचन्द्रने विचार कर श्री मुनिराजके पास जिनेन्द्रकी मुनि दीक्षा धारली। यह सुख दुःखमें, शत्रु मित्रमें, महक मशानमें, जीवन मरणमें समभावका धारी होगया। परम शांत होगया । बाह्य और अभ्यन्तर बारह प्रकारका तप बड़े यत्नसे करने कगा। परीषह व उपसगाके पड़नेपर भी अपने मनको समाधिसे चंचल न कर सका । ध्यानमें स्थिर रहा । तपके साधनसे उसको चारण ऋद्धि सिद्धि होगई, वह श्रुतकेवली होगया। एक दफे विहार करते हुए वे सागरचन्द्र मुनि वीतशोकापुरीमें पधारे । मध्याह्न कालमें (अर्थात् ९ से ११ के मध्य ) ईर्यापथकी शुद्धिसे वह नगरमें विधिपूर्वक विनयसे पारणाके लिये गए । राजमहलके निकट किसी सेठका घर था। उस सेठने शुद्ध भावोंसे पाहार दिया। मुनिराजने नवकोटि शुद्ध प्रासको शांतिपूर्वक ग्रहण किया । मन वचन कायसे कृत कारित अनुमोदना रहितको नवकोटि शुद्ध कहते हैं। मुनिराज ऋद्धिधारी थे। मुनिदानके महास्यसे दातारके पवित्र घरके सांगणमें आकाशसे रत्नोंकी वृष्टि हुई। इस बातको देखकर
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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