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________________ egearnt परित्र भवदेवको मुनिदीक्षा । / इस तरह कपट सहित वह भवदेव नतमस्तक होकर मुनि महाराजको कहने लगा कि- स्वामी ! कृपा करके मुझे अर्हत 'दीक्षा प्रदान कीजिये । मुनिराजने अवधि ज्ञानरूपी नेत्रसे यह जान लिया कि यह ब्राह्मण अपने मनके भीतरी अभिप्रायको छिपा रहा है । भोगोंकी अभिलाषा रखते हुए भी दीक्षा लेना चाहता है, यह भी जाना कि यह भविष्य में वैरागी हो जायगा ऐसा समझकर महामुनिने मुनिदीक्षा प्रदान करदी । भवदेवने सर्वके समक्ष निग्रन्थ दीक्षा धारण करली तौ भी उसका मन कामकी अभिरूपी शल्यसे रहित नहीं हुआ । उसके मनमें यह यात खटकती रही कि मैं कब उस तरुणी, चंद्रमुखी, मृगनयनी अपनी भार्याको देखूं जो मेरेवर मोहित हैं व मेरे विना दुःखी होगी, मेरा स्मरण भले प्रकार करती होगी, मेरे विना उसका चित्त सदा व्याकुल रहेगा । ऐसा मनमें चितवन करता रहता था तो भी बराबर ध्यान, स्वाध्याय, ज्ञान, तप व व्रतमें लगा रहता था । भवदेवका पत्नी प्रति गमन । बहुत काल पीछे एक दिन संघसहित सौधर्म गणी विहार करते हुए फिर उस वर्द्धमान नगर में पधारे। सर्वे ही संयमी मुनि नगरके बाहर उपवन के एकांत स्थानमें ठहर गए। जब अनेक मुनि शुद्धामाके ध्यानकी सिद्धिके लिये कायोत्सर्ग तप कर रहे थे तब भवदेव मुनि पारणा करनेके छळसे नगरकी तरफ चला । उसका चित्त इस ५६
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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