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________________ पंचम भाग ( ३२७ ) सेनापती-माता ये सिंहनाद नामा बन है । यहांसे नगर को जाने के लिये १ माह का रास्ता है। किन्तु............... . ( रोने लगता है।) सीता-सेनापती, सेनापती, तुम बात करते करते क्यों रोने लगे? सेनापती-माता बात बताते हुवे मेरा कलेजा फटता है। मेरा मुंह रुकता है । श्रापको अब यहीं पर रहेना पड़ेगा। . सीता--क्यों सेनापती ! मैंने ऐसा क्या अपराध किया । तुम शीघ्र स्थको हांककर मुझे मेरे पतिसे मिलायो । सेनापती-माता सुनिये, रामचन्द्रजी के पास कुछ लोग इकठे होकर आये थे कि आपने रावण के घर में रही हुई सीता को घर में रखली इससे लोक में अपवाद फैल रहा है। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत समझाया कि आप गर्भ के भार से पीड़ित सीता को बनमें न भेजिये, किंतु उन्होंने लोकापवाद मिटाने के लिये श्रापको वनमें छोड़ने की आज्ञा. दी है। सीता-हैं ! मैं ये क्या सुन रही हूं श्राह.... . (मूर्छित होती है।) सेनापती-आह, चाकरी भी,क्या बुरी चीज है । इसके आधीन मनुष्य को कैसे कैसे अकार्य करने पड़ते हैं। सीता जैसी सती को मैं नौकरी के वश होकर बनमें छोड़ रहा हूं । चाकर से
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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