SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२८२ ) श्री जैन नाटकीय रामायण - - m निकाल दो। विभीषण-राबण ! अब तक मेरा तेरा भाई का नाता था किंतु अब शत्रु का नाता है । यदि तु रत्नश्रवा का पुत्र है तो मैं भी उसीका हूं। इस अपमान का बदला तुझे अच्छी तरह दूंगा तीस अक्षौहिणी सेना से राम को सहायता दंगा । और तेरा सत्यानाश कर दूंगा। (चला जाता है।) मंत्री-महाराज ये बहुत बुरा हुश्रा । रावण-~-बहुत अच्छा हुआ। ऐसे विद्रोहियों को में अपने राज्य में नहीं रखना चाहता । पर्दा गिरता है अंक द्वितिय-दृश्य सांतवां (विभीषण एक हुन सहित आता है।) विभीषण-जिस समय किसी मनुष्य के विनाश की घड़ी आती है, तो उसकी बुद्धि पहले से ही पलट जाती है, लोग कहते हैं कि जिसका नमक खाना उसका अन्त तक साथ निभाना चाहिये । किंतु ऐसा कहना सर्वथा उचित नहीं है । यदि खास पिता भी हो, और वह अधर्म में चलता हो तो कदापि उसका साथ नहीं देना चाहिये । जो किसी भय से भी खोटे पुरुषों का साथ देते हैं वो अपने लिये नरक का सामान करते हैं। धार्मिक
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy