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________________ . -1 . " ने सगरको वरलीया. और सर्व राजे अपने अपने स्थानोंमें चले गये. और मधुपिंगल, उस अपमानसे बाल तप करके साठहजार (६०००) वर्षकी आयुवाला महाकाल नामा असूर, परमाधार्मिक,देव हूआ. तब अवधि ज्ञानसे सगरका कपट, जो उसने सुलसाके स्वयंवरमें जूठा पुस्तक बनाया था, और अप ना जो अपमान हुआथा, सोदेखा और जाना तब विचार कराकि, सगर राजादिकों कों में मारे तबतिनों के छिद्र देखने लगा. जब शुक्तिमती नगरीके पास पर्वतकों देखा, तब ब्राह्मणका रूप करके पर्वतकों कहने लगाकि, हे पर्वत ? मैं तेरे पिताका मिब्रहूं. मेरा नाम शांडिल्य है. मैं, और तेरा पिता, हम दोनो साथ होकर गौतम उपाध्यायके पास पढेथे. मैने सुनाहै, कि नारदने, और दूसरे लोोंने तुजे बहुत दुःखी करा.अवमै तेरा पक्ष पूर्ण करूंगा औरमंत्रों , करके लोकोंकों विमोहित करूंगा, यह कहकर पर्वतके साथ मिलकर लोकोंकों नरकमें डालने वास्ते तिस असुरने बहुत व्यामोह करे. व्याधि, भूतादिःदोप, लोकोंकों करदीये. पीछे उहां जो लोक पर्वतका बबन मानलेतेथे. उनोंकों अच्छा करदेताया. शां
SR No.010504
Book TitleJain Mat Vruksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1900
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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