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________________ - ५० श्री जैनहितोपदेश भाग २. जो. __२१ वैराग्य भाव धारण कर. संपदोजल तरंग विलोला, यौवनं त्रिचतुराणि दिनानि। शारदाश्रमिव चंचल मायुः, किं धनैः कुरुत धर्ममनिन्द्या। ____ लक्ष्मी जळतरंगनी जेवी चपळ छे, यौवन अल्प स्थायी होवाथी अस्थिर छे, अने आयुष्य शरदनां वादळां जेवू चंचळ छे. माटे हे भव्यो ! तमे क्षणिक धननो लोभ तजीने सर्वोत्तम एवा वीतराग भापित धर्मज सेवन करो. ___ रागीना उपर रहेनारी या स्वार्थ पूरता कृत्रिम रागने धरनारी एवी नारीने कोण सहृदय पुरुष वांछे ? तेतो विरागी उपर पूर्ण प्रेमने धरनारी एवी मुक्तिकन्यानेज वांछे छे. ___ दुनियामां सर्व कोइ स्वजनवर्गादिक स्वार्थनिष्ठज छे. एम मुस्पष्ट समज्या छतां कोण सहृदय पुरुप तेमां निष्कारण मग्न थइ रहे ? ज्यारे मोह मायानो पडदो दूर खसे छे त्यारे अखंड साम्राज्य सुखने साक्षात् सेवनारा चक्रवर्ती सरखा सिंह पुरुषो पण पूर्ण वैराग्यथी आ पोद्गलिक सुखनो त्याग करीने सहज आनंदने साक्षात् अनुभववाने श्री वीतराग देशित चारित्र धर्मनो स्वीकार करीने तेने सिंहनी परे पाळवा प्रवृत्त थाय छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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