SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. अंतरनो परिग्रह तज्या विना बाह्य परिग्रहना त्याग मात्रथी कंइ कल्याण नथी. शुं कांचळी मात्र तजवाथी सर्प निर्विष्ट थइ शके छे ? ४८ बने प्रकारना परिग्रहने तृणवत् तजीने जे संसारथी न्यारा र हीने संयमने साधे छे तेनां चरणकमळने त्रणे जगत पूजे हे. परिग्रह एक एवा प्रकारनो ग्रह छे के जेना योगे आखी जगत् पीडा पाये छे, परिग्रह ग्रहथी घेलो थयेलो साधु पण जेम आवे तेम लव्या करे छे, जेम अत्यंत भारथी जाझ जळमां डूबी जाय छे तेम परिग्रह ग्रहथी ग्रस्त थयेलो जीव पण आ भयंकर भवसायरमां डूबे छे. जेम जेम जीवने दैववशात् लाभ मळतो जाय छे तेम तेम तेनेो लोभ वथतो जाय छे, अने ते एटलो वधो के तेनी कंइपण हद रहेती नथी, जेथी ते अनेक प्रकारना पापारंभ करीने पण पैसा पैदा करवा प्रयत्न कर्या करे छे, तेथी जिन शासनानुयायी दरेक आत्मार्थी जीवने उचित छे के तेणे ' पाणी पहेलांज पाळ' नी पेरे प्रथमथीज परिग्रहनुं प्रमाण करीने रहेवुं. अने नियमित धनधान्य - नीतिथीज पैद्रा, करवा खास लक्ष राखनुं, भाग्यवशात् विशेष द्रव्यनी प्राप्ति थइ तो सद्गुरुनी सलाह मुजव पुण्यक्षेत्रमां तेनो विवेकथी व्यय करीने कृ
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy