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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. महाशयने सहज संतोष जन्य अनंत सुख व्यापी जाय छे अने एवा स्वाभाविक सुखमां निमग्न थयेला योगी पुरुषने कदाच अप्सरा चलायमान करवा यत्न करे तो ते तद्दन निष्फळ जाय छे. एवा स्वाभाविक आत्म सुखनीज कामनाथी जे महाशयो उक्त महाव्रतने सेवे छे ते सकळ सुरासुरने मान्य थइने अक्षयसुखना अधिकारी थाय छे. उक्त महाव्रतनी रक्षा माटे प्रथम नव ब्रह्म-वाडो पाळवानी जरुर रहे छे. माटे ते वाडोनुं स्वरुप समजी दरेक मुमुक्षुए तेनो खप करवो युक्त छे. १ वसति-स्त्री, पशु, पंडक विगेरे रहे त्यां ब्रह्मचारीने रहेवू कल्पे नहि. २ कथा-कामकथा करवी घटे नहि. ३ निषद्या-स्त्री विगेरेनुं आसन शयन विगेरे वापरतुं नहि. ४ इंद्रिय-स्त्री आदिकनां अंगोपांग रागवुद्धिथी नीरखवां नहि. ५ कुडयंतर-भीत अथवा पडदा पासे स्त्री आदिकनो वास तनवो. . ६ पूर्वक्रीडा-पूर्व अवतीपणे करेली काम क्रीडा संभारवी नहि. - ७ 'प्रणीत भोजन-रसकसवाना घेवर प्रमुखनुं स्निग्ध भोजन • करचुं नहि..
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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