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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ४१ शरीर संबंधी अनेक प्रकारना व्याधि, निर्धनता, परतंत्रता, अनं चैर, विग्रह विगेरे सर्व हिंसानां फळ समजीने सुबुद्धिजनोए अहिंसानोज आदर करवो. आरोग्य, सौभाग्य, स्वामित्व, अने समाधि प्रमुख अहिंसानां फळ समजीने शाणा माणसोए अहिंसाव्रतनोज अत्यंत आदर क वो युक्त छे. १७ सत्य व्रतनुं पालन कर. प्रिय अने हितकारी वचनने ज्ञानी पुरुषो सत्य कहे छे, अने सत्य छतां अप्रिय, कटुक अने अहितकारी वचन असत्यज कर्तुं छे. तथा वक्ताए वचन व्यवहारमां विशेषे विवेक राखवानी जरूर छे. आंधळो, लुच्चो, लवाड, चोर, दुष्ट, धीठ विगेरे वचनो रागद्वेषादिक विकारथी उच्चरायेलां होवाथी ते प्रसंगे असत्य ठरे छे. वैर, खेद, अविश्वासादि अनेक दोषो असत्य बोलवाथी उद्भवे छे. तेमज आलोकमां वमुराजानी पेरे अपवाद अने परलोकमा अनर्थ परंपराने पामे छे. असत्य बोलनारने पोताना वचनपर प्रतीति बेसाडवा अनेक कुतर्को करवा पडे छे तेथी तेनु मन महा माठा ध्यानमांज मग्न रहेछे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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