SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. सहज क्षमा गुण शक्तिथी छेद्यो क्रोध सुभट, मादेव' भाव प्रभावथी भेद्यो मान मरदः माया आर्जव योगे लोभ ते नि:स्पृह भाव, मोह महाभड ध्वंसे ध्वंस्यो सर्व विभाव. एम स्वभाविक थयो आत्म वीर, भोगवे आत्म संपदा सुधीर जे उदयागता प्रकृति वळगी, अव्यापक थयो खेरवे तेह अळगी.३३ धर्म ध्यान एक तानमे ध्यावे अरिहा सिद्ध, ते परिणतिथी प्रगटी तात्त्विक सहज समृद्ध: स्व स्वरुप एकत्वे तन्मय गुण पर्याय, ध्याने ध्याता निरमोहीने विकलप जाय. यदा निर्विकल्पी थयो शुद्ध ब्रह्म, तदा अनुभवे शुद्ध आनंद शर्म; भेद रत्नत्रयी तीक्ष्णताए, अभेद रत्नत्रयी में समाए. दर्शन ज्ञान चरण गुण सम्यग् एक एकना हेतु, स्व स्व हेतु थया समकाले तेह अभेद भाषेतुः पूर्ण स्वजाति समाधि घनघाति दल छिन्न, क्षायिक भावे प्रगटे आतम धर्म विभिन्न. 10 - १ नम्रता, लघुता-विनय. २ सरळता. ३ सुभट-वीर. ४ विनाश्यो. ५ समृद्धि-अनर्गल धन.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy