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________________ १८६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अध्यात्म - गीता. प्रणमीये विश्व हित' जैनवाणी, महानंद तर सींचवा अमृत पाणी; महा मोहपुर भेदवा वज्र पाणि े, गहन भवफंद छेदन कृपाणि ३. १ द्रव्य अनंत प्रकासक भासक तत्त्व स्वरूप, आतम तत्त्व विवोधक साधक सत् चिद् रुप; नय निक्षेप प्रमाणे जाणे वस्तु समस्त, त्रिकरण जोगे प्रणमुं जैनागम सुप्रशस्त'. जेणे आत्मा शुद्धताए पिछाण्यो, तेणे लोक अलोकनो भाव जाण्यो; आत्मा रमणी मुनि जगविदिता, उपदिशी तेणे अध्यात्म गीता. ३ द्रव्य सर्वना भावना जाणग पासग एह, ज्ञाता कर्ता भोक्ता रमता परिणति गेह; ग्राहक रक्षक व्यापक धारक धर्म समूह, दान लाभ भोग उपभोग तणो जे व्यूह. ४ संग्रहे एक आया वखाण्यो, नैगमे अंशथी जे प्रमाण्योः दुविध व्यवहार नय वस्तु वर्हेचे, अशुद्ध वळी शुद्ध भासन प्रपंचे. ५ १ सर्वने हितकारी. २ इंद्र. ३ तलवार. ४ अति सुंदर.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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