SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १७९ कारता-परहितै पिता. २१ लन्धलक्षता-कार्यदक्षता-सुनिपुणता, कलाकौशल्य. (२००) पुर्वोक्त गुणना अभ्यास रहित योग्यता बिनाज धर्मनी प्राप्ती थवी वंध्यापुत्र अथवा शशशृंगनी परे अशक्य छे. ___ (२०१) योग्य जीवने पण सत्य धर्मनी प्राप्ति बहुधा श्रमण निग्रंथद्वारा हितोपदेश सांभळवाथीज थाय छे. माटे योग्य जीवोने पण सत् समागमनी खास अपेक्षा रहेछेज. (२०२) हजारो ग्रंथ वाचवाथी सार न मळे एवो सरस सार क्षण मात्रमा सत्समागमथो भाग्य योगे मळी शके छे. (२०३) दुर्जनो छते योगे तेवा लाभथी कमनशीवज रहेछे. ___ (२०४) सज्जनोने तो दुर्जनोनी हैयातीथी अभिनव जागृति रहे छे.. (२०५) दुर्जनो सज्जनोना निष्कारण शत्रु छे. पण सज्जनो तो समस्त जगतना निष्कारण मित्र छे. (२०६) दुर्जनोने द्विजीह सर्प जेवा कह्या छे ते यथार्थज छे. केमके ते एकांत हितकारी सज्जनने पण काटे छे. (२०७) सज्जनो तो एवा खारीला-मेरीला दुर्जनोने पण दहव्वा इच्छता नथी एज तेमन उदार आशयपणुं सूचवे छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy