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________________ १६६ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. (१२८) सम्यग् ज्ञानदर्शन अने चारित्रनुं विधिवत् पालन कर, ते खरो पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थहीन कायर माणसो तेग करी शकतां नथी. (१२९) अहिंसादिक पांच महाव्रत तथा रात्रीभोजननो सर्वथा त्याग करवारुपी छटुं व्रत विवेकवुद्धिथी समजीने ग्रहण करी सिंहनी पेरे शूरवीरपणे ते सर्व व्रतोतुं यथाविधि पालन कर तथा अन्य योग्य-अधिकारी स्त्रीपुरुषोने शुद्ध मार्ग समजावी सन्मार्गमां स्थापी तेमने यथोचित सहाय आपवी ते खरो कल्याणनो मार्ग छे. (१३०) सर्व जीवोने आत्म समान लेखीने कोइने कोइ रीते मनथी, वचनथी के कायाथी हणवो नहि, हणाववो नहिं के हणनारने संमत थर्बु नहिं ए प्रथम महाव्रतवं स्वरुप छे. एम सर्वत्र समजी लेवानुं छे. (१३१) क्रोधादिक कपायथी, भयथी के हास्यथी जूठ बोलवू नहि, जूठ बोलावधं नहिं तेमज जूठ बोलनारने संमत थर्बु नहिं ए वीजें महाव्रत छे. पवित्र शास्त्रना मार्गने मूकीने स्वच्छेदे बोलनार मृषावादीज छे. (१३२) पवित्र शास्त्रनी आज्ञा विरुद्ध कोइपण चीज स्वामीनी रजा विना लेबी नहिं, लेवडाववी नहिं, तेमज लेनारने संगत थर्बु
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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