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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ११३ ४. श्री वीतरागनी पूजा, सद्गुरुने दान, दीन दुखीनो उद्धार विगेरे गृहस्थ-अधिकारीने योग्य श्रेष्ठ आचरण ब्रह्मयोग४ कारण होचायी ज्ञान योग कही शकाय छे, परंतुः ज्ञानी-मुनिने तो फक्त ज्ञान-योगज सेववा योग्य छे. गृहस्थ योग्य आचार साधुने सेववानो नथी. केमके वनेनो अधिकार भिन्न छे. ५. जुदा हेतुथी करेली क्रिया क्लिष्ट-कर्मोनो क्षय करी शके नहिं. एतो पाप-कर्मने क्षय करवानी पवित्र बुद्धिथी ज उचित क्रिया विवेकथी करवामां आवे तो ज तेथी पाप-कर्मनो क्षय थाय छे. पण तेथी विरुद्ध आचरणथी तो कदापि थइ शके नहि. स्व स्त्र अधिकार मुजव करेली करणी सुखदायी निवडे छे, साधु साधु योग्य अने गृहस्थ गृहस्थ योग्य करणी करतां सुखी थाय छे. पण साधु पोते गृहस्थ योग्य अने गृहस्थ पोते साधु योग्य करणी करवा जता उलटा अनर्थ पामे छे. पुत्रेष्टिनीपरे (पुत्र माटे करवामां आवतो यह विशेष " पुत्रेष्टि" कहेवाय छे, तेनीपरे) अधिकार विरुद्ध अने निर्दोष शास्त्र विरुद्ध आचरणथी अनर्थन संभवे छे एम समजीने मुनिपुण जनो पाप युक्त यज्ञोथी सदंतर दूर रहे छे. अब पवित्र एवी धर्म करणी पण पवित्र उद्देशथी करे छे. ६. ब्रह्मार्पण कर, एनेज जो ज्ञान यज्ञर्नु खरेखलं सावन कहेवामां आवे तो तेथी पण स्वकृतत्व-अहंकार एटले पोते कर्याप
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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