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________________ श्री जैनहितोपदेश भांग ३ जो. तिपूर्वक करवाना. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ने लक्षमा राखी - सर्वज्ञ कथित सिद्धान्तने अनुसरीने विधिपूर्वक धर्मवर्तन करवू ते वचन अनुष्ठान छे. पूर्वोक्त प्रीति-भक्ति युक्त वचन अनुष्ठानने आचरतां अनुक्रमे अभ्यास बलथी मन, वचन, कायानी, एकाग्रता सघातां असंग क्रियानो अपूर्व लाभ मले छे. असंग क्रिया साधनारने मोक्ष सुलभ छे. माटे मोक्षार्थीजनोए मन, वचन, अने कायाना योगोने परभावमा जतां वारी स्वभाव सन्मुख करवा जोइये. पुद्गलिक सुखनी इच्छा तजीने सहज आत्म सुखमांज प्रीति करवी जोइये. करवामां आवती धर्मक्रियाना पण पवित्र हेतु-फल संबंधी सारी समज मेळवी तेमां योग्य आदर करवो जोइये. जेम बने तेम अविधि दोष तनी विधि रसिक थर्बु जोइये. ८. उक्त स्थानादिक योगनो अनादर करनारा अने स्वच्छंदे चालनाराने सूत्र-दान देवामां मोटो दोष छे, एवो समर्थ आचार्योनो अभिमाय छे. शासननो उच्छेदा थइ जशे एवी बीकथी पण प्रभुनी पवित्र आज्ञाथी विमुखने शास्त्र शिखववामां मोटामां मोटुं पाप छे. ॥ २८ ॥ नियागाष्टकम् ।। यःकर्महुतवान् दीप्ते, ब्रह्मानौ ध्यान धाय्यया ॥ स निश्चितेनयागेन, नियागप्रतिपत्तिमान् ॥ १॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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