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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. त्याग करवाथी सर्व कर्ममलनो क्षणवारमा नाश थाय छे. पण गमे तेटली कष्टकरणी करतां छतां अंतरनो मेल धोवा माटे मूर्छानो त्याग कर्या विना शुद्ध थवातुं नथी. माटे विवेकपूर्वक वाह्य अने अंतर उभय परिग्रहनो परिहार करवो घटे छे. स्त्री पुत्र लक्ष्मी विगेरेनी मूछा तजी केवल ज्ञान ध्याननोज अभ्यास करनारा साधुपुरुषोने पुद्गलनी शी परवा छे ? स्त्री पुत्रने तनीने जो पुनः परिग्रह ममताथी लोक परिचय करी ज्ञान ध्यान न कयु, संयममार्ग सम्यग् सेव्यो नहिं, मूछी ममताज वधारी तो प्रथमनां स्त्री पुत्रादिकने तजीने शुं कमाणा ? उलटी उपाधि वधारवादी विशेषे विडंवना पात्र थवाना. तेम न थाय एवं लक्ष राखर्बुज जोइये. ७. जेम वायरा विनाना स्थळवडे दीवो स्थिर रही शके छबुझातो नथी तेम धर्म-उपगरणोवडे निष्परिग्रहता साधी शकाय छे. धर्मनी वृद्धि करनारां साधनज धर्म-उपगरण गणाय छे तेमनुं ममतारहित सेवन,करतां छतां गमे ते अक्षय सुखना अधिकारी थइ शके छे. पण जो तेमांज उलटी ममता करवामां आवे तो ते उपगरण केबळ अधिकरण (शस्त्र ) रूपज गणाय. माटे ममतारहित ज्ञानदर्शन के चारित्रनां उपगरणोवडे आत्म-उपगारनी सिद्धिं थाय तेम यत्नथी प्रवर्तवं. एम विवेकथी धर्मउपगरणने सेवनारने धर्मनी वृद्धिजं थाय छे. पण जो तेमां विवेकनी खामीथी उलटी ममता स्थपाय तो तेथी धर्मनी वृद्धिना बदले हानि थवानो प्रसंग आवे छे. माटे जेम धर्मोप
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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