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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पवावाळा, शास्त्रना मार्गनेज वताववावाला अने शास्त्र सन्मुखज दृष्टि राखवावाळा महायोगी-मुनि निधे परमपदने पामे छे. माटे मोक्षार्थी जनोए एका सदशास्त्र-सेवी सत्पुरुषोज सदा सेवा योग्य छे. ॥ २५ ॥ परिग्रहाष्टकम् ॥ न परावर्तते राशे, र्वक्रतां जातु नोझ्झति ॥ परिग्रह ग्रहः कोऽयं, विडंबित जगत्त्रयः ॥ १ ॥ परिग्रहग्रहावेशा, दुर्भाषित रजः किरा ॥ श्रूयन्ते विकृताः किं न, पलाया लिंगिना मपि ॥२शा यस्त्यक्त्वा तृणवदाय, मान्तरं च परिग्रहं ॥ उदास्ते तत्पदांभोज, पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥३॥ चित्तेन्तर ग्रंथ गहने, बहिर्निग्रंथता वृथा ॥ स्यागाकंचुक मात्रस्य, भुजगो नहि निर्विषः ॥ ४॥ त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः ।। पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥ ५ ॥ न्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्छा मुक्तस्य योगिनः॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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