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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ८५ क्षय थाय छे, अने मोइनो क्षय थवाथी सकल कर्म वर्गनो स्वतः क्षय थइ जाय छे. ८. कर्मना विपाकने हृदयमां चिंतवतो छतो जे सम विषम स्थितिमा समभावज राखे छे-तेवे वखते जे हर्ष विषाद पामतो नथी, तेज महापुरुप ज्ञानामृतनो रस चाखवा समर्थ थइ शके छे. तेवा समर्थ पुरुष सिंहज सहजानंद मग्न थइ अंते अखंड शास्वत सुखना भागी थइ शके छे. ॥२२॥ भव-उद्धेगाष्टकम् ।। यस्य गंभीर मध्यस्या, ज्ञानं वज्रमयं तलं ।। रुद्धा व्यशनशैलौघैः, पंथानो यत्र दुर्गमाः॥१॥ पाताल कलशा यत्र, भृतास्तृष्णा महानिलैः ॥ कषायाश्चित्त संकल्प, वेला वृद्धिं वितन्वते ॥२॥ स्मरौर्वामिज्वलत्यंत, यंत्र स्नेहेन्धनः सदा ॥ यो घोर रोगशोकादि, मत्स्यकच्छप संकुलः ॥३॥ दुर्बुद्धि मत्सरद्रोहै, विद्युदुर्वात गर्जितैः ॥ यत्र सां यात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पात संकटे ॥४॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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