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________________ - श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ख्याति जाति गुणात्स्वस्य,प्रादुष्कुर्याननिःस्पृहः॥६॥ भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्णं वासो वनं गृहम् ॥ . तथापि निःस्पृहस्याहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम् ॥७॥ परस्पृहा महा दुःखं, निःस्पृहत्वं महा सुखम् ॥ एतदुक्तं समासेन, लक्षणं मुखदुःखयोः ॥ ८॥ ॥ रहस्याथे॥ १. सहज आत्म संपत्तिनी प्राप्ति थया बाद वीजु कंइ पण प्राप्त कर वाकी रहेतुंज नथी. एवा आत्म ऐश्वर्य संपन्न मुनि परस्पहारहित-निस्पृह बनी जाय छे. सर्व रूद्धि अने.समृद्धि घटमांज रहेली. छे, तेवीं सहज साहेबी जो प्रगट थवा पामे तो वीजी बाह्य-तुच्छ चावतोमा मुंझावानुं रहेतुं नथीज. सहज ऐश्वर्यवान मुनि परनी प'रचा रहित होवाथी अने उत्तम सद्गुणोथी भरपुर होवाथी नि:स्पृह थइ-जाय छे. २ परस्पृहावंत प्राणीओ हाथ जोडी जोडीने कोनी कोनी प्रा.'' र्थना करता नथी? सस्पृही सर्व कोइना दास छे अने अपार ज्ञान-- .. बान निःस्पृहीने तो जगतमा कोइनी परवा नथी: पुद्गलानंदी पाणी पोताना-स्वार्य माटे गमे तेवानी-पण प्रार्थना करवा चुकतो नथी...
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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