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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ४७ माणसोए कर्तृत्व अभिमान तजवुं युक्त छे, कोइ पण जातनो मद करवाथी प्राणी पतितपणुं पामे छे, अने मद तजी निर्मद थइ नम्र पणे स्वकर्तव्य समजी जे सत् क्रिया करे छे. ते स्व उन्नतिने सुरके साधे छे. ६. निश्चय-तत्त्व दृष्टिथी जोतां आत्मा अलिप्त छे, अने व्यवहार दृष्टिथी जोतां तेज आत्मा कर्मथी लिप्त देखाय छे. तत्त्वदृष्टि पुरुष अलिप्त दशाथी आत्मानी शुद्धि करे छे, अने क्रियावान् व्यवहार दृष्टि पुरुष स्वानुकूल उचित आचरणथी शुद्ध थाय छे. वंनेनुं साध्य एकज होवाथी स्व स्व अनुकूल साधनवडे उभय सिद्धि संपादन करी शके छे. साध्य विकल कोइ पण माणी स्वानुकूल साधन विना सिद्धि साधी शकता नथी. ७ निश्चय अने व्यवहार दृष्टितुं साथेज प्रगटन - विकास थवाथी ज्ञान अने क्रिया ए उभयनो समावेश थइ जाय छे, परंतु स्थान विशेषथी तो ज्ञाननी के क्रियानी मुख्यता होय छे. व्यवहार साधन वढे निश्चय साध्य थाय छे, अने निश्चय साधनथी मोक्ष साध्य थाय छे. व्यवहार ए मोक्षनुं परंपर कारण छे अने निश्चय अनंतर कारण छे. उभयतुं मीलन थवाथी शीघ्र मोक्ष साधना सिद्ध थाय छे. माटे मोक्षार्थी निश्चय दृष्टि हृदयमां धारीने व्यवहार मार्गनुं अवलंबन अवश्य करतुं युक्त छे. एम करवाथी साधक शीघ्र साध्य सिद्धि -करी शके छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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