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________________ ३८ जैनहितोपदेश भाग ३ जो. • पण तारवा . समर्थ थाय छे उपर बतावेला सद्गुणो विनानो बाह्याडंबरी स्वपरने तारवा शक्तिवान् नथी. २. क्रिया - आचरण विनानुं केवळ शुष्कज्ञान निष्फल छे, अने सदाचरण युक्त सर्व ज्ञान सफल छे. केमके मार्गनो जाण छतांपण गमन क्रिया विना इच्छित स्थाने 'होंची शकतो नथी. अने गमन क्रिया योगे सुखे समाधिथी इष्ट स्थाने होंची शके छे. एम निर्धारीने. म्होटी म्होटी वातो करीने नहि विरमतां साक्षात् क्रियारुचि थवुं. ३. जेम दीवो स्वप्रकाशक छतां तेलवाट विगेरेनी अपेक्षा राखे छे तेम संपूर्ण ज्ञानीने पण काले काले आत्म अनुकूल क्रिया करवी पडे छे, जेम तेलवाट विगेरे अनुकुल साधन विना दीवो वली शकतो नथी; फक्त तेलवाट विगेरे होंचे त्यां सुधीज दीवो बली पछी ओलवाइ जाय छे, तेम ज्ञानीने पण अनुकुल क्रिया कर्या विना चालतुं नथी. जेम जलनो रस जलथी न्यारो रहेतोज नथी तेम सत्यपरमार्थिक ज्ञान पण तदनुकुल क्रिया विनानुं होतुंज नथी. संपूर्ण ज्ञानी पण स्वानुकुल क्रिया करेज छे, तो संपूर्ण ज्ञानी थवा इच्छता एवा अल्पज्ञानीनुं तो कहेवुज शुं ? - ४. क्रिया करवी ते तो वाह्य भाव छे एम कहीने जेओ सत्य व्यवहारनो निषेध करे छे, तेओ मुखमां कोळीयो नांख्या विनाज तृप्तिने इच्छवा जेवुं करे छे. जेम जम्या विना क्षुधा शान्त थती नयी
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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