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________________ - - श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.. २७. ___ २ जे शान्त आत्मा, कर्मनी विषमताने नहि लेखता, सर्व जगजंतुने सहज सुख मेलववा एक सरखी सत्ता होवाथी, आत्म समानज लेखे छे, ते अवश्य मोक्षगामी थाय छ अथात् ज भाव व्याप्यो छे ते जरूर मोक्ष सुख साधी शके छे. ३ योगारुढ थवा इच्छनार साधुने तो बाह्य ( व्यवहार ) क्रि-- यानी अपेक्षा रहे छे. पण योगारुढ मुनि तो अंतर क्रियानो आश्रय. करनार होवाथी केवल शमगुणथीज शुद्ध थाय छे. प्रथम तो योगनीः चपलता वारवा अने सहज स्थिरता साधवा आप्त पुरुषे उपदेशेली व्यवहारिक क्रिया करवी पडे छे पण अनुक्रमे अभ्यास वले मन वचन अने कायानी चपलता शान्त थये छते मुनिने उत्तम क्षमादिक सहज शुद्धक्रिया योगे अंतर शुद्धि थइ शके छे. तेवी योग्यता पामवा प्रथम अभ्यास करी अंते सहज क्षमादिक अंतरंग क्रियाथी आत्म शुद्धि साधवी सुलभ पडे छे. योग्यता विना कार्य साधवा जतां अ-- नेक मुशीबतो आवी पडे छे. ४. ध्याननी दृष्टि थवाथी, शुद्ध करुणारुपी नदी शमपूरथी एवी तो छलकाय जाय छे के तेना कांठ रहेला विविध विकार-वृक्षो मूलथीज घसडाय जाय छे. ज्यारे निर्मलं ध्यानामृतनी दृष्टि थाय छे सारे शुद्ध अहिंसक भावनी एवी तो अभिवृद्धि थाय छे के तेना शान्त रसना प्रबल प्रवाहथी सर्व प्रकारना विषयविकारो समलगा; घसडाइ जाय छे, तेथी तेना कटुक फलनी भीति रहेतीज नथी.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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