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________________ जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ६. उपाधिथी रहित पुरुषज सहज पूर्णता पामे छे; पण उपाधिग्रस्त तो तेथी रहितज रहे छे, एवो पूर्णानंदनो सहज स्वभाव जगतने आश्चर्यकारक लागे छे. ७. परने पोताचं मानवारूप मोहथी उन्मत थएला पृथ्वीपतियो न्युनतानेज देखे छे, गमे तेटली संपत्तिथी संतोष पामताज नथी अने आत्माना स्वभाविक ज्ञानादिक गुण रत्नोनेज पोताना-गणी पूर्ण मुख पामेला पुर्णानंदी पुरुष तो इंद्र करतां कोइ रीते न्युन नथीज पुर्णानंदी पुरुप सदा सहजानंदमां मगज रहे छे. ८ जैम कृष्णपक्षनो क्षय थये छते अने शुक्लपक्षनो उदय थये छते चंद्रमानी कला सर्व देखे तेवी रीते खीलवा मांडे छे, तेम सर्व, पुद्गल परावर्त्तननो अंत थये छते अने चरम पुद्गल परावर्तन मात्र शेष रह्ये छते असत् क्रियाना त्याग पूर्वक सत् क्रियारूचि जागृत थतां सहजानन्द कलानी अनुक्रमे अभिवृद्धिद्वारा अंते पूर्णानंदचंद्र प्रगटे छे. पूर्णानंदी पुरुष चंद्रनी पेरे साक्षात् स्वभाविक मुख-चंद्रिकाने अनुभवी अनेक भव्य चकोरोने आनंददायक थइ शके छे. भव्य चकोरो पूर्णानंद चंद्रना वचनामृतनुं पान करी करीने पुष्ट बनी आनंद मन थइ जाय छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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