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________________ - श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १६१ विनानी धर्मकथावडे अन्य आत्मार्थीजनोने योग्य अव-. लंबनं देवारुप पांचपकारना स्वाध्यायथी आत्माने अत्यं-- त उपकार थतो होवाथी ज्ञानी पुरुषोए तेने अभ्यंतर तपरुप लेख्यो छे. अप्रशस्त अने प्रशस्त अथवा शुभ अने अशुभ अथवा शुद्ध अने अशुद्ध एवा मुख्यपणे ध्यानना वे भेद छे. आत अने रौद्र ए बे अनशस्त तथा धर्म अने शुक्ल ए वे प्रशस्त ध्यानना भेद छे. कोइ पण वस्तुमा चित्तर्नु एकाग्रपणुं थवु ते ध्यान कहेवाय छे. तेथी जो शुभवस्तुमां चित्त परोवायुं होय तो शुभ ध्यान अने अशुभ - वस्तुमा चित्त परोवायुं होय तो अशुभ ध्यान कहेवाय छे. मलीन विचारवाळं ध्यान अशुद्ध कहेवाय छे अने निर्मळ विचारवाडं ध्यान शुद्ध कहेवाय छे. 'मनुष्योने. वंध अने मोक्षनुं मुख्य कारण मनज छे. ' एम जे कहेवाय छे ने आवा शुभाशुभ ध्यानने लइनेज समजवान छे. क्षणवारमा प्रसन्नचंद्र राजर्षिए जे सातमी नर्कनां दळीयां मेळव्यां अने पाछां विखेरी नांख्या ते तथा भरत महाराजाए क्षणवारमा आरीसो अवलोकतां केवळ ज्ञान प्राप्त कर्यु ते सर्व ध्याननोज महिमा छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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