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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. वळी पात्रापात्रनो विवेक राखीने तुं दानदे, जिन चैत्य -कराव, रुडी भावना भाव, रात्रिभोजननो त्याग कर, तेमज हे मित्र तुं संसारिक मोहने त्यजी दे; केवळ भोगना साधनरूप एवा देहनी - सूर्छा त्यज, अने संसारनो पार पाम. तेमज धीरपणुं धारणकर दुःखदायी शोकने त्यज अने मननो मेल दूर कर. ६ M श्रेष्ठ एवो मानव देह पामीने सारां व्रत नियम पाळी. तेने सफळ करवो, व्रत भंग नहि करवो; समाधिवाळु मरण कर, आ भव परभव संबंधी भोगाशंसा तजी देवो; मध्यस्थ रही स्वपर हित साधनुं, परमेष्ठिनो जाप जपवो; धर्म रसायण सेवयुं वैराग्य भावना भाववी, लक्ष्मी विगेरे क्षणिक वस्तु उपरथी मोह त्यजी देवो अने सारभूत एवा विवेकने भजवो. ७ हे सुभग ! तुं धर्मरुपी संबल ( भातुं ) साथै लइले, फरी फरी मनुष्य भव पामवो दुर्लभ छे, माटे अयोग्य आचरण त्यजी दइ जेथी जन्म मरणनो अंत आवे एवं योग्य आचरण सेवीले. ८ " इति प्रस्तावना. " धर्म कुरु. 'धर्मं करोति यो नित्यं स पूज्य त्रिदशेश्वरैः ॥ लक्ष्मीस्तं स्वयमायाति, भुवन त्रय संस्थिता ॥९॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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