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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १५५ देश-संयमी श्रावकनी सीमाये (हदे) पहोंची शकाय छे. ते देश-विरति गुण स्थानक पांचमुं गणाय छे. तेमां पांच अणुव्रत ३ गुण व्रत अने ४ शिक्षात्रतनो समावेश थइ जाय छे. दृढ वैरागी श्रावक सद्गुरु योगे श्रावकनी ११ पडिमा (प्रतिमा) वहेछे. परंतु पूर्वोक्त व्रतने धारण कर्या पहेला तेमांना दरेकनो अभ्यास करी जोवे छे, जेथी तेनुं पालन करई कंइक वधारे मुतर पडे छे, श्रावक योग्य व्रत अने पडिमाना शुभ अभ्यासथी अनुक्रमे 'सर्व संयमनो' अधिकार प्राप्त थाय छे. पांच महाव्रतादिकनो एमां समावेश थाय छे. ए गुण स्थानक छठे 'प्रमत्त' नामे ओळखाय छे. लीधेलां महाव्रत विगेरे जो सावधानपणे साचवी तेमनी शुद्धि अने पुष्टि करवामां आवे छे तो परिणामनी विशुद्धियी अप्रमत्त नामे सातमु गुण स्थानक प्राप्त थइ शके छे पण जो उक्त महाव्रतादिकनी उपेक्षा करी स्वच्छंद वर्तन करवामां आवे छे तो परिणामनी मलीनताथी पतित अवस्थाने पामी छेवट मिथ्यात्व नामना प्रथम गुण स्थानके जवु पडे छे, तेथी ज दीर्घदृष्टि थइने जेनो मुखेथी निर्वाह थाय तेवां व्रत ग्रहण करवामां आवे तो तेथी पतित थवानो प्रायः प्रसंग आवे नहि. "स्व. स्व शक्ति मुजब वनी शके तेटली धर्म करणी कपट रहितज करवानी जिनेश्वर भगवाननी आज्ञा छे." एवी अखंड आज्ञानुं उल्लंघन करवाथी हानीज-थाय छे. तेथी उक्त आज्ञानुं आराधन करवामांज सर्व हित समायेखें छे. कदाचित् सरल भावथी सर्व संयम आदर्या वाद.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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