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________________ श्री जैनहितोपदेश: भाग- २. जो. १२६ शकशे ? आ. भवमां पण अत्यंत हितकारी धर्मेनी कृपाथीज सर्व-साहेवी पामीने जो तेज परोपकारी धर्मनोः ध्वंस करवामां आवशे तो स्वामीद्रोह करनार - ते. नीच पापीतुं कल्याण पछी शीः रीते थइ शक शेखरु जोतां एवा पापी धर्म द्रोहीतुं भविष्यः सुधरवुः खरेख दुःशक्यज- छे: • जे माणसने आवां हृदय वेधक शास्त्र वचनोथी पोतानां करेला पापोनो पुरेपुरी पश्चाताप थाय छे अने फरी एव पाप नहिं करवानी पवित्र बुद्धिधी सद्गुरु समीपे प्रायश्चित्त ( करेलां पापोनी शुद्धि) करवा इच्छा थाय छे, एवा पण योग्य जीव उपर कृपाळु धर्म महाराज जरुर कृपा कटाक्ष करे छे. एटले एवा जीवोनों पण उद्धार आवी रीते थइ शके छे. परंतु पाप करीने खुशी थनारा, अथवा लोक रंजनने माटे फ क्त. मोठेथीज वळापो करनारा अथवा कपट रचनाथी स्वदोषने छुपा - वनारा एवा अयोग्य अने दंभीजनो उपर गुणइ अने गुण पक्षपाती धर्म महाराजानी मेहेरवानी भविष्यकाळमां पण कदापि होइ शकेज नहि. י एम- समजी नीच, नादान, अने निर्लज-एचा नालायकजनोनी संगति तथा तेमना - अनर्थकारी आचार विचारने तजी दड़ने, उदार, दया; अने लज्जाळु एवा सुपात्रनीज संगत- अथवा तेमना हितकारी
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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