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________________ श्री जैनहितोपदेश भागमो . १०५ जीवने सहायभूत थइ कता नी. देह के कुटुंबने गमे तेटली पोष्या छतां अंते आपणां यतां नयी. स्वायों नित्यं मित्रनी परे ते छेनटे छह दे छे. तेथी जूहार मित्रनी जेवा परम उपकारी. धर्मनुज शरण करतुं योग्य छे..... । ... -३.-संसार-आप आपणां कर्मानुसारे सर्वे जीवो नर्क, तिर्यत्र . मनुष्य अने देव गतिमां गमन करे छे, जेणे जेवू.शुभाशुभ कर्म जेवा भावधी कर्यु: होय छे, तेने तेवू. शुभाशुभ फल तेवी. रोते भोगवन -पडे छे. विविध कर्म वशात् जीवो नटवर विविध चेष्टाओ करे छे. कर्मने: वशवर्ती जीवानी तेत्री विचित्र अवस्था जोइने तत्त्व दृष्टि.मुंआइ जता-नयीं, कारण के तत्त्व दृष्टि पुरुषो तेनां मूळ कारणने सारी रीते. समनता होवाथी मन.समाधान करी शके छ, अतव दृष्टि जनो.एवी रीते मन- समाधान करी शकना नथी, तेथीन दुःखमय संसारमा पण रच्या पंच्या रहे छे.. ४- एकत्व-जीव एकलोज आवे छे अने एकलोज़ जाय छे. साये फक्त पुण्य अने पापज- रहेवाथी जीव तदनुसारे मुख दुःखने 'पामे छे. जीव जेबा जेवां कर्म करे छ, ..तेवां तेवांन आ भवमा के परभवमा फळ भोगवे छे. तेमां कोई कंइ पण मिथ्या करी शकतुं नथी. आता आणे मारु सुधार्यु अथवा आणे मारु बगाडयु. एम जीव मुग्धताथी मानी बेसे छे. तथा एकनी उपर राग अने बीजा उपर
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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