SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी जैनहितोपदेश भाग २ जो. सांगोपांग आगमने अर्थ रहस्य युक्त. जाणता छता, अन्य शियोने पठाववामा कुशल अने प्रमाद रहित. मूळ-उत्तर व्रतने पाळ बामां तत्पर . छता, शिष्य समूहने धर्मशिक्षा देवा चतूर एका __ भविष्यमा आचार्यपद पामवाने योग्य धर्मगुरु उपाध्यायना. नामथी ओळखाय छे. .. बाह्यांतर परिग्रहथी मुक्त मुमुक्षु जनो जैन दर्शनमां साधु, श्र___ मण अने निग्रंथादिना नामथी ओळखाय छे, तेओ अहोनिश प्रमाद __ रहित धर्मसाधनमा तत्पर छता स्वहित पूर्वक परहित साधे छे. अहिं सा, संयम अने तप लक्षण चारित्र धर्ममां सदा सावधानपणे वर्तता , भव्य जीवोने सन्मार्ग वतावे छे. . शुद्ध आत्म धर्मथी अलंकृत होवाथी उक्त पंच परमेष्टी जगतमा. सारभूत छे, जेमां अरिहंत अने सिद्ध शुद्ध देवपदे, आचार्य, उपाध्याय अने सर्व साधुजनो शुद्ध गुरुपदे तेमां सारभूत रहेला दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने तप शुद्ध धर्मपदे वर्ते छे. एवो शुद्ध धर्म दरेक आत्म व्यक्तिमां शक्तिरुपे रहेलो छे. अने तेन शक्तिरुपे रहेलो शुद्धधर्म परमेष्टी पुरुषोनी पेरे परम पुरुषार्थ योगे प्रगट थइ शके छे. परमेष्टी पुरूपाने ते अगट थयेल छे. आपणा प्रत्येक आत्मामां शक्ति रुपे रहेला ते शुद्ध धर्मने प्रगट करवानी पवित्र वुद्धि-निष्टाथी जो पूर्वोक्त पंच परमेष्टि भगवंतनुं तन्मयपणे भजन, स्मरण, रमण, पूजन करवामां आवे तो आपणामां शक्तिरुपे रहेलो शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy