SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. दोरीनो अमुक छेडानो भाग हाथमा मजबुत रीते पकडी राखवामा आवे छे अने जो ते जुक्तियी जाळवी शके छे तो पहेला लोटा साये अभीष्ट जळ मेळवी शके छे पण जो छेवटना भागमा कंइपण गफछत करे छे तो ते सर्वने गमावी पोताना जानने पण जोखममां नांखे छे, तेम समाधि मेळवी पोतानो जन्म मुधारवाने आखी जिंदगीना मोटा.भाग मुधी यत्न कर्या छतां जो छेवटना भागमा गफलत-वेदबकारी करवामां आवे तो पोताना चळंचित्तथी ते अभीष्ट समाधिने अंत वखते मेळववा भाग्यशाली थइ शकतो नथी, परंतु दुषित थयेलां मन, वचन, अने कायाथी उलटी असमाधि पेदा करीने अधोगतिने "पामी जन्म मरण जन्य अनंत दुःखनोज भागी थाय छे. माटे राग द्वेषादिक अंतर विकारो जेम निर्मूळ थवा पामे 'तेम यत्नथी जीवित पर्यंत निष्काम चित्त राखी व्यवहारिक नैतिक अने धार्मिक जीवन गाळवामां आवे अने कदापि पण खइष्ट कार्यमा गफलत थवा न पामे तो छेवट अंत समये समाधि प्राप्त थया विना रहे नहि. एम समजीने कोण विवेकीनर स्खइष्ट कार्यनी उपेक्षा करी स्वच्छंद वर्त"नथी संसार परिभ्रमण पसंद करे वारु ? अथवा खरेखरूं तत्त्व रहस्य शास्त्रकारोए कहुं छे के "जेवी गति एवी मति अने मति एवी गति" आ मार्मिक वचन बहु बहु मनन करवा योग्य छे. अने टुंकाणमा सर्व हितोपदेशना सार रुप छे. समाधि मुग्वना कामी जनोप आराधना प्रकरणादिकमा क
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy