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________________ श्री - जैनहितोपदेश भाग २ ' जो. वामां आवे तो कष्ट सहन कर्या छतां जोइये एवं फळ कदापि थइ शकेन नहि. जे जे व्रतनुं पालन प्रीतिथी रुचिथी कर-: वामां आवे छे तेनुंज फळ सारुं बेसे छे. - अरुचियी करवामां आवती गमे ते क्रियानुं परिणमन सारुं थइ शकतुंज नयी. तेथी चित्तनी प्रसन्नता माटे भय (चित्तनी चंचळतां ) द्वेष ( अरुची ) अने खेद . ( क्रिया करता थाकी जनुं ते) दोषने दूर करवाने प्रथम प्रयत्न कवो जोइये. वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ समजायाथी अने तेमां पोतानुं मन धायार्थी उक्त दोषो सहजमां दूर थइ शके छे, पछी खरी लहेजती पाळवामां आवता तोथी आत्माने यथार्थ लाभ थाय छे. आ लोकना के परलोकना सुखने माटे करवामां आवती क्रियाने विष या गरल समान कही छे, क्रियानां फळ हेतु समज्या विना केवळ देखादेखीथी करवामां आवंती क्रियाने ज्ञानी पुरुषो अननुष्ठान कहे छे. ते ते क्रिया संबंधी फळ हेतु, विगेरेने समजी केवळ कल्याणने माटेज करवामां आवती धर्मक्रियाने तदूहेतु कहे छे, तेमज ज्यारे दृढ अभ्यासथी उक्त क्रिया मन वचन अने कायानी एकताथी अवचक पणे धाय छे त्यारे तेमां अमृतनी जेवो स्वाद आववाथी ज्ञानी पुरुषो तेने अमृत क्रिपा कहे छे; नव्हेतु, अने अमृत क्रियाज आत्माने मोक्षदायी छे, वाकीनी त्रण तो भव भ्रमणकारीज कहेली छे. एटलो अधिकार अनि उपयोगी होवाथी प्रसंगोपात कहेवामां आव्यो छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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