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________________ ८२ श्री जैनहितोपदन भागे २ जो. — दश दृष्टांते दुर्लभ मानव देह, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुळजातिमा जन्म, इंद्रिय पटुता, शरीर नीरोगता, सद्गुरु योग, निर्मळ बुद्धि धर्मरुचि अने तत्व-श्रद्धादि शुभ सामग्री महा भाग्ययोगे पामीने पांचे प्रमाद त्यजी उल्लसित भावथी सिंहनी पेरे शूरवीरपणे आहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अने निष्परिग्रहतादिक महाव्रतोतुं खरुप यथार्थ समजीने अभ्यास पूर्वक तेमनो स्वीकार करवो अथवा परिणामनी मंदता योगे समकित मूळ श्रावकनां वार व्रत पैकी बनी शके तेटलां समजीने तेवां पण व्रत धारण करवां. ए आ उत्तम मानव भव पाम्यानुं फळ छे. सप्त व्यसन, रात्री भोजनादिक अभक्ष्य भक्षण, अने भूमिकंदादिक अनंत जीवात्म वस्तु, अणगळ जळपान विगेरेन. तो दरेक शाणा माणसे अवश्य वर्जन करबुज जोइये. प्रारब्ध योगथी प्राप्त थयेली लक्ष्मीनुं फळ ए छे के तेनो उदार आ. शयथी परमार्थ दावे पुण्यक्षेत्रमा उपयोगमा करचो. यशकीर्तिनीज खातर दान पुण्य नहिं करता केवळ कल्याणार्थे करवामां आवतुं पात्रदान परिणामे अनंतगणुं उत्तम फळ आपी शके छे. अने वचन शक्ति पाम्यानुं उसम फळ ए छे के सर्व कोइने प्रीति उपजे एवं मिष्ट-मधुर अने हितकारीज वचन वदवू. कदापि पण कोइने अप्रीति के खेद उपजे एवं कडवं के अहित वचन कहेवू नहि. परने मिय एवं प्रसंगने लगतुं हित-मित भाषण करनारज सत्यवादी होवाथी प्राय: सर्व कोइने मान्य थइ शके छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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