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________________ ( १५८ ) पमौयं तु ५ कित्तिय वंदिए महिया जे । प्रसन्नयाको कोर्निकरी वंदु मोटा प्रते तेह पुज्या ध्याय लोगस्म उत्तमा मिद्धा आरोग्दा वोहिला लोको विप्रै उत्तम सिद्ध के गेग रहित समकित बोध ला समाहि वर मुत्तमं दितुं ६ देसु निम्मर समाधि प्रधान उत्तम देखो' . चन्द्रमाथी निम. यग भाइहेसु अहियं पयासयग सागर वर घणां सूर्यथी अधिक प्रकाश करी समुद्र समान गम्यौरा मिद्धा मिद्धिं मम दिसंतु ७ गंभीर एहवा सिद्ध सिद्धी मनै देवो ॥ अथः नमाथुणं ॥ नमौत्य गां अरिहताणं भगवंताग नमस्कार थाघो भरिहन्त भगवंत ने धर्म पाडगग की भादि करता तित्ययगगां मयंमवुद्धाण पुग्मिात्तमाणं तीये करता विना गुरू पोने प्रति पुरुषांमें उत्तम शेध पाम्या पुरिम मिहाग पुरिमवर पंडरौयाग पुरि गुरागर्म सिंह समान पुरुषा ने पुंडरिक पुरुषा कमल समान
SR No.010500
Book TitleJain Hit Shiksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
PublisherKumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
Publication Year1925
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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