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________________ H e जैन-गौरव स्मृतियां वाले पशुवध को रोकने के लिए यह जाति यथाशक्य प्रयास करती आई है और कर रही है । इसी तरह जैनजाति प्रत्येक क्षेत्र में मुक्तहस्त से दान देती आई है। जैनजाति की उदारता विख्यात है । इस जाति ने न केवल अपनी सामाजिक सीमा में ही दान के प्रवाह को आबद्ध किया है प्रत्युत प्रत्येक क्षेत्र को अपने दान-वीर से सिञ्चित किया है । राष्ट्र के सन्मुख जब जव कोई संकट आया है, जब जब आर्थिक सहायता की उसे अपेक्षा रही है तब तब इस जाति ने मुक्तहस्त से विपुल द्रव्य का दान किया है । राष्ट्रीय, सामाजिक, शैक्षणिक और अन्यान्य क्षेत्रों में इस जाति ने उदारतापूर्वक द्रव्यराशि वितरित की है। अनेक युनिवरसिटियों, कालेजों, स्कूलों और पुस्तकालयों तथा अन्य लोकोपयोगी संस्थाओं में जैनियों के द्वारा दिया गया दान उल्लेखनीय है। प्रकृति के प्रकोप के कारण जब २ किसी प्रान्त पर कोई संकट आया तब तब इस जाति ने उसे निवारण करने में पूरा २ सहयोग दिया । जैनजाति की यह दानशीलता उसकी विशाल एवं उदार मनोवृत्ति की सूचना देती है। संक्षेप में यहाँ हतना ही लिखना पर्याप्त है कि साम्य भावना पर प्रतिष्ठित होने से जैन संस्कृति में दया दान का वही महत्व है जो शरीर में प्राण का है । दया और दान जैन संस्कृति के प्राण हैं । . जैनधर्म की वैज्ञानिक दृष्टि ईश्वर को शुद्ध परमात्मा के रूप में स्वीकार करती है परन्तु उसे सृष्टि का कर्ता और हर्त्ता नहीं मानती । उसका मन्तव्य है कि विशुद्ध परमात्मा सष्टि के सर्जन या विसर्जन के स्वावलम्बन प्रपञ्च में नहीं पड़ सकता यह सृष्टि प्रवाह अनादिकाल से प्रवा हित है और अनन्तकाल तक प्रवाहित रहेगा । इस वैज्ञानिक विचारणा के कारण जैनपरम्परा में वह परावलम्वता और अकर्मण्यता न आ सकी जो ईश्वर को कर्ता-हर्ता मानने वालों में आगई है। जैन संस्कृति में -प्रत्येक प्राणी अपने सुख-दुख के लिए, अपने अभ्युदय या पतन के लिए, अपने उत्कर्ष या अपकर्ष के लिए स्वयं उत्तर दायी है । सञ्चा जैन अपने पर आई हुई विपत्ति के समय घबराकर परमात्मा को कभी नहीं कोसता । वह अपने ही कर्मों को इसके लिए जवाबदार समझता है। वह मानता है कि मेरे ही किये हुए शुभ या अशुस कर्मों का परिणाम मुझे ही भोगना पड़ता है। . मैंने पहले अशुभ कर्म किये हैं अतः उसके परिणामस्वरूप यह संकट मुझ पर XXXCAKACIKAKAKKARTIKOK:(१२६):AEXERCISEXKREAKIKATRIK
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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