SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ KISIS जैन-गौरव स्मृतियां खमीत्व को स्वीकार करती है अतः इस सम्बन्ध में वह जैन परम्परा के अधिक नजदीक है। ब्राह्मण परम्परा में कर्म को अदृष्ट सत्ता के रूप में माना गया है जब कि जैन परन्परा में रागद्वेष को भावकर्म कहा जाता है और इस भावकम के द्वारा आत्मा अपने आसपास सर्वत्र सदा वर्तमान सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुओं को आकृष्ट करता है तथा उसे विशिष्ट रूप अर्पित करता है, यह द्रव्य कर्म कहा जाता है। विशिष्ट रूप प्राप्त यह भौतिक परमाणुपुञ्ज कार्मण शरीर कहा जाता है सो जन्मान्तर में जीव के साथ जाता है और स्थूल शरीर के निर्माण की भूमिका बनाता है। .. ... इसी तरह मोक्ष विषयक मान्यता में भी उक्त परम्पराओं में मतभेद है। जैन परम्परा के अनुसार मानव शरीर से ही साधना के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, जब कि वेद परम्परा में देवता भी मोक्ष प्राप्त कर सकते है जैन । परम्परा के अनुसार देवयोनि भोगभूमि है। वहाँ तो अपने पुण्य का फल भोगा जातो है । 'पाप और पुण्य के बन्धन से मुक्त होने के लिए मानव शरीर के द्वारा साधना करना आवश्यक है। - इसके अतिरिक्त जैन तत्वज्ञान में कई ऐसे तत्व भी हैं जो वैदिक परम्परा में नही हैं जैसे । गति स्थिति में सहायता करनेवाले धर्म-अधर्मतत्व, लेश्या,आदि-आदि-। जैन तत्वज्ञान की एक विशिष्ट विचार- शैली है जो अनेकान्त या स्याद्वाद के रूप में प्रसिद्ध है। इस शैली का प्राधान्य जैन 'धर्म के तत्त्वनिरूपक ग्रन्थों में ही पाया जाता है अन्यत्र नहीं । इन सब असमानताओं के रहने पर भी ये दोनों धर्म पुरातन काल से साथ-साथ चले आते रहने के कारण एक-दूसरे से प्रभावित हुए हैं। एक-दूसरे ने एक-दूसरे से कुछ न कुछ ग्रहण किया ही है। छोटी-मोटी अनेक वातों में एक का प्रभाव दूसरे पर न्यूनाधिक मात्रा में पड़ा हुआ देखा जाता है। जैनधर्म की अहिंसा भावना का ब्राह्मण परम्परा पर क्रमशः इतना प्रभाव पड़ा कि जिससे यज्ञीय हिंसा लुप्तसी हो गई है। यज्ञीय हिंसा का समर्थन अब केवल शास्त्रीय चर्चा का विषय मात्र रह गया है । यह स्पष्ट रूप से जैन .. धर्म के प्रभाव को व्यक्त करता है । इसी तरह निवृत्ति प्रधान जैन धर्म पर ब्राह्मण परम्परा की लोक संग्राहक वृत्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभाव
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy