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________________ Se e * जैन-गौरव-स्मृतियां बचपन में महावीर भी त्यागी महात्माओं के संसर्ग में आये हों यह सम्भव है। महावीर राजकुमार थे, सब प्रकार के सुखोपभोग के साधन उन्हें प्राप्त थे। उनके चारों ओर संसारिक सुख वैभव बिछा पड़ा था । यह सब कुछ था, परन्तु महावीर के हृदय में कुछ दूसरी ही भावनाएँ काम कर रही थी। उनका चित्त सांसारिक सुखों से ऊपर उठकर किसी गम्भीर चिन्तन में लगा रहता था । वे तत्तालीन धार्मिक, सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक और विविध . परिस्थितियों पर विचार करते थे । उनका चित्त उस काल के धार्मिक और सामाजिक पतन के कारण खिन्नसा रहता था उस समय का विकारमय । वातावरण उन्हें क्रान्ति की चुनौति दे रहा था । उस चुनौति को स्वीकार करने के लिए उनके चित्त में पर्याप्त मन्थन हो रहा था। उन्होंने उस परिस्थिति में आमूल चूल क्रान्ति पैदा करने का संकल्प कर लिया था। वे दीर्घदर्शी थे अतः उन्होंने एकदम बिना साधना के क्रान्ति के क्षेत्र में उतरने का साहस नहीं किया , उन्होंने क्रान्ति पैदा करने के पहले अपने आपको तैयार करना अपनी दुर्बलताओं पर विजयपाना अधिक हितकारी समझा। इसलिए अपनी २८ वर्ष की उम्र में माता पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर उन्होंने त्यागमार्ग, आत्मसाधना का मार्ग स्वीकार करना चाहा । परन्तु उनके ज्येष्ठ भ्राता है। नन्दिवर्धन के आग्रहके कारण दो वर्ष तक गृहस्थ जीवन में ही वे तपस्वियोंसा अलिप्त जीवन विताते हुए रहे और परिस्थिति का अध्ययन करते हुए अपनी तैयारी करते रहे । अन्ततोगत्वा तीस वर्ष की भरी जवानी में विशाल साम्राज्य लक्ष्मी को ठुकरा कर मार्गशीर्ष कृष्णा दसवीं के दिन पूर्ण अकिञ्चन भिक्षु के रूप में वे निर्जन वनों की ओर चल पड़े। महावीर ने आत्मशुद्धि के लिए ध्यान, धारणा, समाधि और उपवास अनशन आदि सात्विक तपस्याओं का आश्रय लिया । वे मानव समाज से ... अलग, दूर पर्वतों की कन्दराओं में और गहन वन प्रदेशों महावीर की साधना में रहकर आत्मा की अनन्त, परन्तु प्रसुप्त आध्यात्मिक - शक्तियों को जगाने में ही संलग्न रहे । एक से एक भयंकर आपत्तियों ने उन्हें घेरा, अनेक प्रलोभनों ने उन्हें विचलित करना चाहा परन्तु भगवान् हिमालय की तरह अडोल रहे । जिन घटनाओं का वर्णन पढने से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वे प्रत्यक्ष रूप से जिस जीवन पर गुजरी होंगी वह कितना महान् होगा! ...
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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