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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियाँ * कोई दश न होगा जहाँ जैनव्यापारी का प्रवेश न हुआ हो। अमरीका, इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, अफ्रिका, जापान, रूस आदि दूरवर्ती प्रदेशों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध हैं । अफ्रिका चीन, वर्मा, मलाया, सिंगापुर, लंका, श्याम, आदि प्रदेशों में तो बहुत प्राचीन काल से जैनव्यापारियों का निवास रहा है । अाजकल भी विदेशों में बहुत बड़ी तादाद में जैनों की वस्ती है। चर्म, मद्य-मांस आदि गहित उद्योगों को छोड़ कर प्रायः सब प्रकार के अगर्हित उद्योगों में जैनव्यापारियों ने प्रवेश किया है और अच्छी सफलता प्राप्त की हैं। ऐसा होते हुए अधिकतर जैनव्यापारियों का ध्यान वस्त्र, सोना-चाँदी, जवाहरात, किराना, अनाज, रूई-ऊन आदि के व्यवसाय की ओर अधिक आकृष्ट हुत्रा है । इन क्षेत्रों में जैनों ने पर्याप्त व्यापारिक कीर्ति उपार्जित की है। अपनी व्यापारिक प्रतिभा और द्रव्यराशि के बलपर उन्होंने कतिपय व्यापारी पर एकाधिपत्य सा प्राप्त कर लिया है। वे न. केवल भारत के अपितु विश्व के बाजार में उथल पुथल मचा देने की क्षमता रखते है । विश्व के बाजारों का उतार चढ़ाव उनके रुख पर निर्भर करता था । किसी समय रूई के व्यवसाय में सर सेठ हुक्मीचंद जी ने इतना प्रमुत्व प्राप्त कर लिया था कि उनके रुख पर अमेरिका के बाजारों में उथल-पुथल हो जाया करती थी। अनेक नव्यापारियों के लिए ऐसा कहा जाता है कि "अाज का भाव यह है कल की बात वे जाने।" बम्बई के शेयर बाजार के राजा सेठ प्रे-चंद के लिए उक्त प्रकार से लिखा जाता था। जैनों में से कई व्यापारी कोई 'कॉटन किंग' कोई सिल्वर किंग, कोई शेयर किंग के नाम से व्यापारों में प्रतिष्ठा प्राप्त किये हुए है। देश की प्रौदोगिक सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए कलकारखानों की स्थापना में भी नव्यापारी पीछे नहीं रहे हैं। कपड़े के मिल, तेल . निकालने के प्राइल मिल, जिनिंग एड प्रेसिंग फेक्टरियाँ. प्रिटिंग प्रेस वर्तन बनाने के कारखाने. सिमेंट के कारखाने, रबर के कारखाने इत्यादि अनेक उद्योग नव्यापारियों द्वारा संचालित हो रहे हैं । सर सेठ हुक्मीचंद कस्तूरभाई लालभाई, शांतिलाल मंगलदास, कन्हैयालाल भंडारी, डालमिया, साह श्रेयांसप्रसाद प्रादि २ अनेक उद्योगपति हैं : सर चुन्नीलाल भाषचंद 'अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राम जैनन्यापारी हैं।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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