SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Seो जन-गौरव स्मृतियां का.कोई महत्व नहीं है । सत्य विवेक के बिना किया..गया घोरतम तपश्चरण भी किसी काम का नहीं है । हजार वर्ष पर्यन्त उग्र देहदमन किया जाय परन्तु यदि विवेक का अभाव है तो वह व्यर्थ होता है। विवेक शून्य क्रियाकाण्ड आत्मा को उन्नत बनाने के बजाय उसका अधः पतन करने वाला होता है। भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की यही सर्वोत्तम महानता है कि उन्होंने देहदमन की अपेक्षा आत्मसाधना पर विशेष मार दिया। कमठ, उस समय का एक महान् प्रतिष्ठा प्राप्त तापस था। वह वाराणसी के वाहर गंगातट पर डेरा डाल कर पंचाग्नि तप किया करता था। इस पंचाग्नितप के कारण वह हजारों लोगों का श्रद्धाभाजन और माननीय बना हुआ था। हजारों लोग उसके दर्शन के लिए जाते थे। पार्श्वनाथ भी वहाँ गये । उन्होंने देखा कि तापस की धूनी में जलने वाली बड़ी २ लकड़ियों में नाग और नागिनी भी जल रहे हैं । उनका अन्तःकरण इस दृश्य को देखकर द्रवित हो गया । साथ ही उन्होंने इस पाखण्ड को, ढोंग को आडम्बर को दूर करने का दृढ़ संकल्प कर लिया । तात्कालिन प्रथा के विरुद्ध 4 और वहुमत वाले लोकमत के खिलाफ आवाज उठाना साधारण काम नहीं है इसके लिए प्रवल आत्मवल की आवश्यकता होती है । पार्श्वनाथ ने निर्भयता पूर्वक अपने अन्तःकरण की आवाज को उस तापस के सामने रक्खी। उसके साथ धर्म के सम्बन्ध से गम्भीर चर्चा की और सत्य का वास्तविक स्वरूप जनता के सामने रखा । उन्होंने अपने पर आने वाली जोखिम की परवाह न करते हुए स्पष्ट उद्घोषित किया कि ऐसा तप अधर्म है जिसमें निरपराध प्राणी मरते हों । पार्श्वनाथ की सत्यसय, ओजस्वी और युक्तियुक्त वाणी को सुनकर कमठ हतप्रभ होगया। पार्श्वनाथ ने जलते हुए नाग नागिनी को बचाया और उन्हे सम्यक धर्मशरण के द्वारा सद्गति का भागी बनाया । कमठ पर पार्श्वनाथ की विजय. विवेक शून्य देह दण्ड पर आत्मसाधना की विजय थी। भगवान् पार्श्वनाथ ने उस तापस युग में आत्मा और अनात्मा का स्पष्ट स्वरूप जनता के सामने रक्खा । "आत्मतत्व सिन्न २ तत्वों का समूह नहीं परन्तु अच्छेद और शाश्वत शुद्ध तत्व है । ईश्वर और मनुष्य, पशु और वृक्ष आदि. सव में चेतन-आत्मा है । पूर्वभव के कर्मफल प्रत्येक आत्मा को
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy