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________________ Syste* जैन-गौरव-स्मृतियां ASS , के द्वारा पूर्ण होने लगी। इससे जनता ने पुनः सुख-शांति का अनुभव किया। इस रूप में भगवान् रिषभदेव गानव-जाति के त्राता हैं, आदि गुरु है और सर्व प्रथम उपदेष्टा हैं । इसीलिए वे 'आदिनाथ' कहलाते हैं। बड़े ही प्रतिभाशाली __इस तरह रहन-सहन और खान-पान में जनता को स्वावलम्बी बनाने - के पश्चात् भगवान् रिषभदेव ने सामाजिक नीति का सूत्रपात किया । युगलिक युग में मानव-जीवन की कोई विशिष्ट मर्यादा नहीं थी। अतः उन्होंने कर्मभूमि युग के आदर्श के लिए और पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए विवाह-प्रथा को प्रचलित करना उचित समझा । अतः भगवान् का विवाह सुमंगला और सुनंदा नाम की कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। इस प्रथम विवाह का आदर्श जनता में भी फैला और समस्त मानव-जाति सुगठित परिवारा के रूप में फलने-फूलने लगी। भगवान ने अपने आदर्श गृहस्थाश्रम के द्वारा जनता को गृहस्थ-धर्म की शिक्षा दी। सुमंगला के परम प्रतापी पुत्र भरत हुए। ये बड़े ही प्रतिभाशाली सुयोग्य शासक थे। इनके नाम से ही हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है । ये इस युग के प्रथम चक्रवर्ती हुए । सुनन्दा के गर्भ से वाहुबलि उत्पन्न हुए। ये अपने युग के माने हुए शर वीर योद्धा थे । ये जैसे शुर वीर थे वैसे धर्म वीर भी थे अतः उन्होंने प्रवल वैराग्य से दीक्षा धारण कर आत्म-कल्याण किया था। भरत और वाहुबलि के सिवाय भगवान् रिषभदेव के अढाणवें पुत्र और ब्राह्मी सुन्दरी नाम की दो कन्याएँ भी थीं। भगवान ने इन दोनों पुत्रियों को उच्च शिक्षण दिया था। भगवान ने ब्राह्मी को सर्व प्रथम लिपि का शिक्षण दिया था अतः इस कन्या के नाम से ही वह ब्राह्मी लिपि कहलायी.। भगवान् ने कन्याओं को प्रथम शिक्षण देकर मानव-जाति के विकास में स्त्री-शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व ___ प्रदर्शित किया है। इस युग के प्रयास हुए शर . तत्कालीन प्रजा का संगठन सुव्यवस्थित चलता रहे इस उद्देश्य से भगवान् ने मानव-जाति को तीन भागों में विभक्त किया था-क्षत्रिय, वैश्य आर शूद्र । ब्राह्मण वर्ण की स्थापना भगवान् के सुपुत्र महाराजा भरत ने उक्त तानों विभागों में से मेघावी पुरुषों को चुन कर अपने चक्रवत्ती-काल में का भगवान् ने वर्ण की स्थापना में कर्म को महत्त्व दिया था। उस समय 4. जाति को कोई महत्त्व नहीं था। इस प्रकार सगवान् ने जीवनोपयोगा , al WAL
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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