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________________ * जैन-गौरव -स्मृतियाँ प्रधान । लानुक्रम से भिन्न २ भाषा के संसर्ग से तथा दुष्काल आदि के कारण से गमों की अक्षरशः सुरक्षा न हो सकी । स्मृतिभ्रंश आदि कारणों से श्रत न ह्रास होने लगा। चरमकेवली जम्बू के बाद श्वेतास्वरपरम्परा के अनुतर आचार्य प्रभाव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय और भद्रवाहु श्रत वली ( सम्पूर्णश्रुत के ज्ञाता ) हुए, जब कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार बष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाहु श्रतकेवली हुए। वीर नर्वाण की इस दूसरी शताब्दी में यागम ग्रन्थों में दुष्कालादि के कारण अस्त यस्तता आगई थी । नन्दराजा के शासनकाल में ( मगध देश में ) बारह वर्षी भयंकर दुष्काल पड़ा । श्रमणों को आहारादि की प्राप्ति में भी कठिनाई होती थी इससे स्मृतिभ्रंश होने लगा । आगमों के लुप्तप्राय होने की आशंका कु. होने लगी । अतः सुभिक्ष होने पर वीरात् १६० के आसपास पाटलिपुत्र में हा में जैनश्रमणसंघ एकत्रित हुआ । एकत्रित श्रमणों ने दुप्काल के कारण ता अस्त-व्यस्त हुए आगमों को व्यवस्थित किये परन्तु उनमें से किसी को ना दृष्टिवाद का अस्खलित ज्ञान नहीं रह गया था। उस समय दृष्टिवाद के ज्ञाता श्री । भद्रबाहु स्वामी थे परन्तु वे वारह वर्ष के लिये विशेष प्रकार के योग का अव लम्बन लिये हुए थे और वे नेपाल देश में थे। अतः श्रमण संघ ने स्थूलिभद्र 1 को कई साधुओं के साथ दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए नेपाल भद्रबाहु स्वामी के पास भेजा। भद्रबाहु स्वामी ने स्यूलिभद्र को दशपूर्वी का अध्ययन कराया। इसके बाद स्थूलिभद्र ने अपनी श्रु तलब्धि ऋद्धि का प्रयोग किया इससे भद्रबाहु ने श्रागे पढ़ाना स्थगित कर दिया। स्यूलिभद्र के बहुत अनुनय करने पर उन्होंने शेष रहे हुए चार पूर्वी की केवल वाचना दी परन्तु अर्थ नहीं बताया तथा साथ ही यह भी सूचना की कि तुम किसी दूसरे को इन चार पूर्वो की वाचना भी न देना । इस तरह स्यूलिभद्र तक चवदह पूर्व का ( वाचना की अपेक्षा ) ज्ञान रहा । अर्थ की अपेक्षा से तो भद्रबाहु स्वामी के समय तक अर्थात् वीर निर्वाण संवत् १७० तक ही सम्पूर्ण दृष्टिवाद रहा । इसके बाद सम्पूर्ण दृष्टिवाद का ज्ञान विच्छिन्न हो गया । श्री भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास वीर नि० १७० में हुआ। दिगम्बर, परम्परा के अनुसार श्रु तकेवली का लोप वीर निर्वाण सं० १६२ में हुआ।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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