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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियाँ Si de मानसिंह के नेतृत्व में एक विशाल सेना मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए. भेजी। सन १५७६ में हल्दीघाटी के मैदान में महाराणा प्रताप ने इस विशाल सेना का दृढता के साथ मुकावला किया । असंख्य मुगल सेना के सामने । राणा प्रताप की मुट्ठीभर सेना कहाँ तक टिक सकती थी ? उदयपुर. महाराणा के हाथ से निकल गया और राणाजी ने मेवाड़ के जंगलों की राह ली। ' :.. ''... राजमहलों से बाहर कभी जमीन पर पैर न धरनेवाली महारानीजी अपने नन्हें २ बच्चों के साथ जंगल. के कँटीले और पत्थरीले बीहड़ पथ की पथिक बनी थीं। जंगल में डरावने पड़ाड़ों के बीच और भयावनी . रात्रियों में, शेरव्याघ्रों की गर्जना के बीच सुकोमलाङ्गी महारानी ने अपने छोटे २ बच्चों के साथ, कैसे दिन बिताये, होंगे ? परन्तु इन सब भयंकर विपत्तियों में भी महाराणा अपनी आन-शान और घान पर पहाड़ की तरह . हृढ़ रहे । उनकी विपत्तियों की पराकाष्ठा हो गई। घास की रोटियाँ उन्हें खाने को मिलती थीं, वह भी पूरी नहीं । एक दिन वह क्या देखते हैं कि . उनकी छोटी बच्ची के हाथ से एक बनविलाव रोटी छीनकर भाग गया है और बच्ची भूख के मारे चिल्ला रही है। महारानी के पास दूसरी रोटी नहीं जो उसे दी जा सके । इस घटना ने महाराणा के लोह हृदय को हिला दिया। धैर्य का महासागर विक्षुब्ध हो उठा। वे अधीर हो उठे। उन्होंने मेवाड़ छोड़ देने का निश्चय किया। . . . . . . . . . जब यह खबर भामाशाह को लगी तो उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। वे महाराणा का मेवाड़ छोड़ना कैसे सह सकते थे ? उनके मस्तिष्क मैं तो मेवाड़ के सिंहासन पर पुनः महाराणा को आसीन करने की कल्पनाएँ और योजानाएं काम कर रहीं थीं। अतः भामाशाह शीघ्र ही अपनी समस्त धन-सम्पत्ति गाडियों में भरवाकर उस जंगल की ओर चल पड़े जहाँ राणाजी वनवासी. बने हुए थे। वहाँ पहुँचते ही. वे महाराणा के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा-"अन्नदाता ! यह सारा धन आपका ही दिया हुआ है । आपके ही दिए हुए अन्न से. यह शरीर वना है अतः यह शरीर और ग्रह सारा धन आपकी सेवा में समर्पित है। इसे स्वीकार कीजिये और पुनः सैनिक संगठन करिए। आप यदि मेवाड़ छोड़ देंगे तो .
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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