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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां SSS होता है इससे सूर्य का नवीन उत्पन्न होना नहीं माना जाता है वरन् उसका उदय और अस्त होना समझा जाता है । ठीक इसी तरह जैन धर्म का विकास और ह्रास होता रहता है । इस विकास और हास को उत्पत्ति और विनाश नहीं कहा जा सकता । इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में रिषभदेव ने जैन धर्म का पुनरुत्थान किया । जैन परिभाषा में धर्म का पुनरुद्धार कर तीर्थ स्थापन करनेवाले को तीर्थकर कहा जाता है। प्रत्येक तीर्थकर का कोल जैन धर्म का उदयकाल है। एक तीर्थंकर के समय से दूसरे तीर्थंकर के जन्म समय से पहले तक जैन धर्म उदित होकर पुनः अस्त हो जाता है। दूसरे तीर्थकर पुनः उसका अभ्युत्थान करते हैं। इस दृष्टि से रिषभदेव से लगाकर महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकर जैन धर्म के संस्थापक नहीं परंतु उसे. नवजीवन देनेवाले युगावतारी महापुरुष हैं। ................ ..., जैन धर्म के प्राचीन इतिहास के संबंध में कतिपय पाश्चात्य और पौर्वात्त्य इतिहासकार अनभिज्ञ रहे हैं। यही कारण है कि कतिपय इतिहासकारों ने जैन धर्म के विषय में भ्रांत अभिप्राय व्यक्त किये हैं। किसी ने इसे वैदिक धर्म का रूपांतर माना है और किसी ने इसे बौद्ध धर्म की शाखा मान कर महावीर को इसका संस्थापक माना है। सचसुच यह इतिहासकारों की अनभिज्ञता का परिणाम है। साथ ही यह भी कहना ही पड़ेगा कि इतिहास के विषय में जैन विद्वानों की उपेक्षा बुद्धि रही जिसके कारण जैन इतिहास अपने वास्तविक रूप में विश्व के सम्मुख नहीं आ सका । कतिपय इतिहासकारों ने जैन धर्म को उसके मूल ग्रन्थों से न समझ कर उसके प्रतिद्वंद्वी धर्म: ग्रंथों के आधार से ही समझने की कोशिश की है इसलिए वे इसके संबंध में भ्रांत निर्णय पर पहुंचे हैं । अजैन संसार को प्रायः जो जैन धर्म का इतिहास विदित है वह बहुत कुछ भ्रांत और गलत है । अब ज्यों-ज्यों ऐतिहासिक अन्वेपण होता जा रहा है त्यों-त्यों यह प्रकट होता जा रहा है कि जैन धर्म और जन संस्कृति अति प्राचीन है। : . ... . __ आधुनिक इतिहास काल जिस समय से प्रारम्भ होता है उससे पूर्व जैन धर्म विद्यमान था यह अब इतिहास वेत्ताओं को भलीभांति विदित हो चुका है । इतिहास काल की परिधि चार पाँच हजार वर्ष के अन्दर ही सीमित है। उससे बहुत-बहुत प्राचीन काल में भी जैन धर्म का अस्तित्वं था।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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