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________________ **<><><><><>< जैन- गौरव - स्मृतियां पक्षी तक वैरभाव को छोड़कर उस दिव्यवाणी का श्रवण करते थे । भगवान् के समवसरण में पूर्ण साम्यवाद का साम्राज्य था । देव और सम्राट भी, चांडाल और अन्य निम्न गिने जाने वाले व्यक्ति भी एक साथ बैठ सकते थे । किसी को भी उस धर्मसभा में किसी तरह का संकोच नहीं होता था । भगवान् महावीर के दरबार में जाति का महत्व नहीं था किन्तु सद्गुणों क : महत्व था । जैनागमों में जातिगत उच्च-नीच भावना की तीव्र आलोचना की गई हैं । जाति का अभिमान करने वालों को खूब लताड़ सी बताई गई है। आ प्रकार की मदों में जातिमद को सर्वप्रथम स्थान देकर उसे अधःपतन का कारण बताया है । जो व्यक्ति जातिमद में आकर ऐंठने लगते हैं और दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, वे भयंकर पाप करते है और उसका दुष्परिणाम इस लोक या परलोक ये उन्हें भोगना पड़ता है । आचारांग सूत्र में कहा गया ---- से असई उच्चगोए, असई नीयागोए नो हीरो नो अइरिते, नोऽपीहए संखा को गोयावाई को माराबाई ? कांसी वा एगे गिज्मा ? अर्थात् जीव अनेक बार उच्च गोत्र में, अनेक बार नीच गोत्र में उत्पन्न होता है इसलिये नीचकुल में जन्म लेने से कोई हीन नहीं हो जाता है और उच्चकुल में जन्म लेने से कोई ऊँचा नही हो जाता है। यह जानकर कौन गोत्र का अभीमान करे और कोन गोत्र को महत्व देगा । उच्च 'गोत्र पाकर कोई आसक्ति न करे । ' उत्तराध्ययन सूत्र में जयघोष - विजयघोष के अध्ययन में स्पष्ट कर दिया गया है कि जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता है परन्तु सच्चा ब्राह्मण. वह है जो किसी की हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, सदाचार का पालन करता है और तप-त्याग मय जीवन व्यतीत करता है । इस तरह वहाँ गुण के अनुसार ही ब्राह्मणत्व माना गया है न कि जाति या जन्म मात्र से । व्यवस्था के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण निम्नलिखित गाथा से स्पष्ट हो जाता है . 1. XXXXXXXXXXXX*:(?£?)&XXX@korroxxx (:(२६४)
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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