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________________ Here जन-गौरव स्मृतियाँ Sache है। जैनअहिंसा व्यवहार में किसी तरह वाधक नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति) अपनी जवाबदेहियों को निभाता हुआ अहिंसा की मर्यादा का पालन कर सकता है । अहिसा के प्रकरण में पहले यह कहा जा चुका है कि कतिपय । सम्राट, राजा, सेनापति, सैनिक, मंत्री, कोतवालं, पुलिस कर्मचारी, . साहूकार, व्यापारी, नौकर-चाकर आदि सब श्रेणी के व्यक्ति जैन अहिंसा को अपनी २ शक्ति के अनुसार धारण करते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं। अतः जैन-अहिंसा को अव्यावहारिक बताना भी युक्ति-शून्य है। कतिपय लोगों की यह धारणा है कि जैनधर्म केवल निवृत्ति .. का ही निरूपण करने वाला धर्म है वह प्रवृत्ति का उपदेशा नहीं देता । यह . भी ठीक नहीं है । जैनधर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों प्रवत्ति-निवृत्ति को महत्व देता है। 'असुहाओ विनिवत्ती सुहे पवित्ति जाण . चरित्तं' अर्थात् अशुभ कार्यों से निवृत्ति करना और शुभ में प्रवृत्ति करना ही चारित्र है । जैन सिद्धान्त में समिति और गुप्ति का विधान है इसमें गुप्ति निवृत्ति रूप है और समिति प्रवृत्तिरूप है। अतः जैनधर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को महत्व प्रदान करता है। .:. : ......... . जैनधर्म में जिस प्रकार. आत्मकल्याण करने का विधान है उसी तरह पर-कल्याण की भावना भी ओतप्रोत है । जैन तीर्थङ्कर लोककल्याण के लिये ही तीर्थ की रचना करते हैं। लोककल्याण की भावना से ही वे उपदेश-धारा बहाते हैं । यदि उन्हें केवल आत्म-कल्याणः ही इष्ट होता तो केवलज्ञान हो जाने के बाद उन्हें उपदेश देने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वे वन में ही रहकर मौन-जीवन व्यतीत कर सकते थे । परन्तु यह अभीष्ट नही है। इसका कारण यही है कि उनके उपदेश से दूसरे अनेकों प्राणियों का उद्धार होता. है । अतः वे जनकल्याण के लिये उपदेश प्रदान करते हैं। वर्तमान में जैनमुनी भी संयम की साधना के द्वारा आत्म-कल्याण करने के साथ ही साथ ग्रामातुग्राम विचरण करके जनता को सन्मागे पर: चलने का उपदेश देते हैं। यह जनकल्याण की दृष्टि से अंतिमहत्वपूणे है। जैन मुनियों का यह लोकोपकार अत्यन्त महत्वपूर्ण है सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को उन्नत बनाने में जैनमुनियों की प्रवृत्तियों का बड़ा भारी भाग है । अतः जैनधर्म को केवल निवृत्तिमय धर्म कहना भी
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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